भर्ती को प्रभावित करने वाले स्थान संबंधी कारण

प्रत्येक संगठन, बड़ा हो या छोटा, को लोगों की भर्ती में संलग्न होना पड़ता है, क्योंकि भर्ती किसी भी संगठन को सभी संसाधनों में सबसे ज्यादा उत्पादक उपलब्ध कराता है, वह है कर्मचारी । भर्ती के दो पहलू हैं

(i) रिक्तियों को खोजना एवं उन्हें भरने के लिए आवेदकों का प्रकार तथा

(ii) भावी आवेदकों से रिक्तियों के लिए आवेदन हेतु संपर्क करना। कोई भी संगठन निम्न में दिए कारणों पर विचार किए बिना सफलता से भर्ती नहीं कर सकताः

1. आर्थिक कारक : किसी देश की आर्थिक स्थिति सभी संगठनों में भर्ती की प्रक्रिया को प्रभावित करती है। वैश्वीकरण एवं उदारीकरण की भारत की आर्थिक स्थिति की 1991 के बाद की नीति ने भारत की वित्तीय सेवाओं में भारी वृद्धि की है। नई आर्थिक नीति के फलस्वरूप एमबीए/ सीए/आईसीडब्ल्यूए/सीएफए विद्यार्थियों की माँग जबर्दस्त रूप से बढ़ गई है। यहाँ तक कि इंजीनियरिंग के विद्यार्थियों को वित्त/मार्केटिंग डिग्री अथवा डिप्लोमा लेना पड़ता था ताकि कार्य अवसर प्राप्त किए जा सकें, क्योंकि निर्माण क्षेत्र में उनकी माँग ज्यादा नहीं बढ़ी है। लोगों विशेषका वित्त प्रबंधन कौशल रखने वालों की ज्यादा माँग थी।

कंपनियों को उचित व्यक्तियों को रखने के लिए अत्यधिक विज्ञापन का आश्रय लेना पड़ता है। परन्तु 1990 के अंत तक यह चलन बदल चुका था। सॉफ्टवेयर और फार्मा क्षेत्र को छोड़कर, तकरीबन हर क्षेत्र में अवनति का दौर शुरू हो चुका था। परिणामस्वरूप कंपनियों को अपने भर्ती लागत में कमी करना पड़ी एवं उन्हें केम्पस भर्ती, संस्थानों में खोज कर्मचारी की जानकारी, ठेकेदारों आदि के स्थान पर कम लागत वाले मीडिया विज्ञापन का ही आश्रय लेना पड़ा।

2. सामाजिक कारक : किसी संगठन की भर्ती नीति को सामाजिक कारक भी प्रभावित करते हैं। पिछले दो दशक में हुए सामाजिक बदलावों ने संगठनों को भर्ती पर ज्यादा जोर देने के लिए दबाव बनाया है। आधुनिक कर्मचारियों की मानसिकता ‘कोई भी कार्य’ के स्थान पर ‘संतुष्टि का केरियर’ तक बदल गई है। अगर वे अपने कार्य से संतुष्ट नहीं हैं तो वे संगठन छोड़ने में झिझकते नहीं हैं और झिझकते नहीं हैं और अनुकूल परिस्थितियों की खोज में बाहर चले जाते हैं। इन समस्याओं से बचने के लिए कंपनियाँ आजकल कार्य का ज्यादा वास्तविक चित्र प्रस्तुत करती हैं तथा नए भर्ती अभियान से भावी कर्मचारियों को उत्साहवर्धक केरियर अवसर प्रदान करती हैं। संगठनों को वर्तमान सामाजिक मूल्यों एवं नियमों के प्रति जागरूक एवं संवेदनशील होना होता है। अन्यथा उनके भर्ती के प्रयास रास्ते भटक जायेंगे। संगठनों को संगठन में ही प्रशिक्षण तथा विकास पर जोर तथा कार्यों की श्रृंखला से उन्नति प्रदान करना चाहिए।

3. तकनीकी कारक : वैश्वीकरण एवं आर्थिक उदारीकरण ने 1991 के बाद से बैंकिंग, इलेक्ट्रॉनिक्स, टेलीकम्युनिकेशन, ऑटोमोबाइल, सॉफ्टवेयर तथा फार्मा उद्योगों में तीव्र परिवर्तन किया है। नई तकनीकी ने नए कार्य का निर्माण तथा वर्तमान कार्यों में तीव्र बदलाव किया है। कई पुराने कार्य पटल से गायब हो चुके हैं। तकनीकी परिवर्तनों से कौशल एवं ज्ञान रखने वाले व्यक्तियों की लगातार कमी हुई है। ऐसे वातावरण में कंपनियों को अपने भर्ती प्रयासों में वृद्धि कर कम संख्या में उचित उम्मीदवारों से सफलतापूर्वक प्रतिस्पर्धा करना पड़ रही है।

4. राजनीतिक कारक : 1980 का अंतिम दौर कार्पोरेट समूह में ‘बराबर के रोजगार अवसर’ की संकल्पना लेकर आया। कंपनियों द्वारा अंत में इस सच्चाई को मान लिया गया है कि रोजगार की परिभाषा कार्य करने की क्षमता के संदर्भ में होनी चाहिए बजाय वंश, रंग, धर्म, यौन अथवा राष्ट्रीयता के संदर्भ में। राजनीतिक मजबूरियों एवं संवैधानिक व्यवस्था में विशेष समूहों हेतु आरक्षण, योग्यता, कौशल एवं अनुभव के द्वारा भर्ती के आड़े आता है। संघों, प्रबंधन के रिश्तेदारों, राजनीतिक नेताओं आदि की सिफारिशें भी किसी संस्थान की भर्ती नीति में महत्त्वपूर्ण पार्ट अदा करती हैं।

5. वैधानिक कारक : विभिन्न वैधानिक नीतियाँ जो बालश्रम, रात्रिकालीन पारी, बंधुआ मजदूरी, ठेके पर लिया श्रम आदि को नियंत्रण में रखती हैं, द्वारा उन कंपनियों के लिए एक प्रमुख वैधानिक वातावरण प्रस्तुत किया है जिसका ध्यान विभिन्न स्थानों पर भर्ती के समय रखना आवश्यक है, कुछ महत्त्वपूर्ण विधान जो भर्ती को प्रभावित करते हैं:

(i) कारखाना अधिनियम, 1948 : यह कारखाना अधिनियम 14 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं एवं बच्चों को रोजगार देने पर प्रतिबंध लगाता है, जो विशेष कार्यों जैसे रात्रिकालीन कार्य, भूमिगत कार्य, भारी वजन उठाना के लिए है।

(ii) प्रशिक्षु अधिनियम, 1961 : प्रशिक्षु अधिनियम एक पाठ्यक्रम निर्धारित करने की मशीनरी उपलब्ध करता है तथा प्रशिक्षण की अवधि, प्रशिक्षु एवं कर्मचारियों की आपसी प्रतिबद्धता को उल्लेखित करता है। एक प्रशिक्षु को अनुबंध की अवधि तक कार्य पूरा करने पर नियमित नामसूची में लिया जा सकता है। 1986 में अधिनियम में किये गये संशोधन प्रशिक्षु अवधि के दौरान तथा नियोक्ता द्वारा करार की शर्तें पूरी ने करने पर हर्जाना प्रदान किया जाता है।

(iii) रोजगार कार्यालय अधिनियम, 1959 : रोजगार कार्यालय अधिनियम द्वारा नियोक्ताओं को उनके संस्थानों में रिक्तियाँ होने पर उन्हें भरने से पहले निर्धारित रोजगार कार्यालयों में अधिसूचना जारी करना आवश्यक किया है। अधिनियम सभी सार्वजनिक क्षेत्रों तथा गैरकृषि आधारित निजी क्षेत्रों को शामिल करता है जहाँ 25 अथवा अधिक व्यक्तियों को रोजगार दिया जा रहा हो।

(iv) श्रम ठेका अधिनियम 1970 : श्रम ठेका अधिनियम उस प्रत्येक संस्थान (ठेकेदार) पर लाए होता है जो 20 या अधिक व्यक्तियों को रोजगार पर रखता है। ठेका मजदूरों की विभिन्न संस्थानों में रोजगार स्थितियों को नियंत्रित करता है तथा कई संस्थानों में श्रम ठेका खत्म कराता है।

(v) बंधुआ मजदूर प्रथा (उन्मूलन) अधिनियम 1976 : यह अधिनियम बंधुआ मजदूरी उन्मूलन करने (समूहों द्वारा कर्जा उतारने नाम पर सहाय पीड़ितों से बलपूर्वक मजदूरी कराने की प्रथा) या उसके पारिवारिक सदस्यों से की सहायता उपलब्ध कराता है।

(vi) बाल श्रम अधिनियम 1986 : बाल श्रम अधिनियम कुछ निश्चित रोजगारों में 14 वर्षों से कम उम्र के बच्चों को रोजगार दिए जाने पर प्रतिबंध लगाता है। हाल ही में यह भारत में एक गंभीर मुद्दा बन गया जब जर्मनी की एक फर्म में उत्तरप्रदेश से निर्यात किये गये कालीन लेने से इंकार कर दिया क्योंकि कालीन उद्योग में बाल श्रम कार्यरत था।

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